Its time for another self-composed one. The first two and the last sher were written years ago. I added the middle ones recently, while I was on a bus trip to Pune and was getting bored. So here’s the gazal:
कहता हूँ गज़ल मेहफ़िल वीरान देखकर,
कहूँ तो क्या कहूँ ये कदरदान देखकर।
उस राह पर हज़ारों कदम पड़ रहे हैं आज,
छोड़ी थी हमने जो कभी, आसान देखकर।
मचल रही ये बिजलियाँ, ये अब्र, ये ज़मीन,
तुझे देख ड़गमगा मेरा ईमान देखकर।
बहर बढ़ा नदी की ओर, साहिलों को तोड़,
मेरे वजूद को माशूख़ पे कुर्बान देखकर।
कुछ कह रही तेरी नज़र नशे में गर्द सी,
कुछ कहने से रुकी मेरी ज़ुबान देखकर।
इन आँखो पे कहे शेर भी भुला रहा हूँ मैं,
इन आँखो में तेरी हुस्न का ग़ुमान देखकर।
ख़्वाहिश न रही दिल में कोई जी रहा हूँ बस,
हसरत भरे हुज़ूर के अरमान देखकर।
I am a fan!
Zarranawazi ke liye shukriya!! Warna aapke jalwon se kaun waakif nahi huzoor.
>>उस राह पर हज़ारों कदम पड़ रहे हैं आज,
>>छोड़ी थी हमने जो कभी, आसान देखकर।
Kyaa baat hai!! Wonderful!
-Abhinav