Habib Jalib, was a Pakistani revolutionary poet, who spent most of his life fighting against dictatorial regimes and ruling classes there. Because of which, he did spend a lot of his time in prison. This is his best known poem along with the video of his own reading in a public meeting:
दीप जिसका महल्लात ही में जले
चंद लोगों की खुशियों को लेकर चले
वो जो साये में हर मसलेहत के पले
ऐसे दस्तूर को,
सुबह-ए-बेनूर को,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता।
[महल्लात == palaces (plural of महल)]
[मसलेहत == expediency]
[दस्तूर == system, convention]
[बेनूर == dark]
मैं भी खाइफ़ नहीं तख्ता-ए-दार से।
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़ियार से।
क्यों डराते हो ज़िन्दों की दीवार से?
ज़ुल्म की बात को,
जहल की रात को,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता।
[खाइफ़ == one having fear (खौफ़)]
[तख्ता-ए-दार == platform for execution]
[मंसूर == martyr]
[अग़ियार == strangers, used here in the send of tell ‘the world’]
[ज़िन्दां == jail]
[जहल == stupidity/ignorance, virtue of being जाहिल]
“फूल शाख़ों पे खिलने लगे”, तुम कहो,
“जाम रिंदो को मिलने लगे”, तुम कहो,
“चाक सीनों के सिलने लगे”, तुम कहो,
इस खुले झूठ को,
ज़हन की लूट को,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता।
[रिंदा == drinker]
[चाक == torn slits]
[ज़हन == difficult to translate, means roughly soul or heart]
तुमने लूटा है, सदियों हमरा सूकूं
अब न हम पर चलेगा, तुम्हारा फ़ुसूं
चारागर दर्दमंदो के बनते हो क्यों?
तुम नहीं चारागर,
कोई माने मगर,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता।
[फ़ुसूं == deception/magic]
[चारागर == healer]