Another self-composed one, after a while. Actually wrote this one sometime back. But somehow found today an appropriate time to post. Also, have been a bit busy lately.
So here’s the gazal:
तुम नही तो और कोई चल रहा है संग,
कश्ती के लिए कब रुकी नदी की है तरंग।
न पूछो उसका नाम जो हुई फ़िज़ा मे गुम
मान लो कि दिल मे छुपी थी कोई उमंग।
कि भूल जाऊँ या संजोऊँ ख़्वाब वह हँसीन
बढ़ूँ तो किस तरफ़ कहो कि रास्ते हैं तंग।
ज़िन्दगी के ये सवाल देखकर के अब
दिल-ओ-दिमाग़ मे छिडी है जैसे कोई जंग।
रंग खिल उठे जो सुने हमने वो जवाब
खुशी के हैं कि गम के पता किसके है वो रंग।
वो कहते हैं न उनके लिए ग़म करे कोई
गम बिना भी है कोई क्या ज़िन्दगी का ढ़ंग।
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