This time a self-composed mukta-chhanda. No particular reason or thought line behind it, really free flowing words:
क्यों लौट कर आया है वो हमदर्द
वो पिघलता दर्द
वो आधे लिखे ख़त
वो पहचानी-सी आहट
वो कागज़ पर उतरने से इनकार करते लव्ज़
वो अपने हि मतलब के ज़ाहिर होने से ड़रते लव्ज़
वो अनछुई लकीरों को लाँघने की चाह
वो तिनके से छोटी पर फ़िर भी आसमानों को छुती आह
वो दूर परदेस से आती आवाज़ों को सुनने की ललक
वो हवाओं को महकाती रातरानी के फूलों की महक
वो कुछ कह जाने के ड़र से चुप चाप महफ़िल से दूर अंधेरे कोने ढूंढ़ता मैं
वो भेद ना खुल जाये इस ड़र से हलकी-सी झुकती आँखों को पूरी तरह मूंदता मैं
वो सिलसिलेवार हाथों से बिछड़ता दिल, और फ़िर सिलसिलेवार दिल को छुते हाथ
वो किसी के साथ न होते हुए भी महसूस होता किसी का साथ
वो रोशनी से मुलक़ात
आज बरसों के बाद
क्यों लौट कर आयी है और कर गयी है इस वक़्त को चटकीले रंगों मे गर्द
क्यों लौट कर आया है वो हमदर्द
do write some more original
I’ll try dear!! 🙂