Poems are like beds. They come in all forms – from extremely pink, furry, mushy and soft to back-painingly rock hard. You can always add cushions to make them better. They can be used as decorative pieces in drawing rooms, without much utility though. And they seem unnecessarily clumsy when used as decorations. They have their own roles to play in love affairs (okay don’t look at me like that… they have nice and legitimate roles to play… you pervert). They can be hollow when they come, and the ‘user’ can put substance into them by his imagination. If you don’t want others to see a broken piece, you always have sheets to cover them.
And of course, you can sleep over them.
So here’s a poem which I wrote the day before, clad it in a big white sheet yesterday, and I slept over it the yesterday night. Take it:
पथिक! क्यों रणभेरी बजाता है?
बिखरे हुए इस राज्य को,
क्या जीत कर मिलना तुझे।
हारी हुई सेनाओं से,
क्या सोच भिड़ना है तुझे।
हराकर इन मृतों को,
क्या जीत तेरी हो सकेगी?
या तुझे भी जान निर्दय,
वह भी रुख कुछ मोड़ लेगी।
जबकि इन सब बैरियों को,
वह चुका है मार,
औ’ तुझे बतला रहा
बस निमित्त लाचार।
फिर भी पग क्यों लड़खड़ाते,
हाथ से गिरता धनुष क्यों?
ईश्वरेच्छा से बंधा,
हर एक युग मे यह मनुज क्यों?
कर बंधे हैं, चरण हारे,
दोष फिर भी स्वयं मे ही पाता है,
पथिक! क्यों रणभेरी बजाता है?
कर रहे इंकार शर अब,
चाप से ही छुटने को,
जबकी भौंरा भी विकल सब,
सौरभों को लूटने को।
क्या यह पहली बार है,
कि हो रहा है मन विकल?
कर रहा इंकार है अब,
प्रेरणा को भी निगल।
क्या देखा है तुमने पहले,
निमित्त को किसी,
किसी युग मे,
स्वयं को निमित्त मानने से करते इंकार।
या देखा है उसे,
गहरी सोच मे ड़ुबे
पहचानते टटोलते अपने ही ध्येय का आकार।
या फिर उलट कर,
जवाब देते, कर्ता को
अपने ही ।
क्या यह केवल,
इसी युग की सच्चाई है?
या फिर होता रहा है युगों से यही निरंतर।
या शायद,
प्रत्येक युद्ध के पहले,
मिट जाता है कर्ता और निमित्त का अंतर।
सारथी और धनुर्धर मानों,
जान पडते हों,
एक ही।
तीक्ष्ण दृष्टी है, सोच प्रबल,
फिर भी स्वयं मे कर्ता नहीं देख पाता है,
पथिक! क्यों रणभेरी बजाता है?
जब कर्ता की आवाज़,
हो जाती है पुरानी,
तो निमित्त खुद मे ही
खोज लेता है कर्ता की बानी।
गु्नगुनाते हैं सैकडो
अंतर मे छुपे साज़,
जब सुन पाता है वह
अपनी ही नई आवाज़।
पर वही आवाज़ें पुरानी और विकट,
प्रतिध्वनित हो लौट आती है,
और कानों के आकर निकट,
खोए विश्वास को समेट रणभेरी बजातीं हैं।
सच्चा युद्ध नहीं जीता
बाणों की पैनाहट से जाता,
धनुर्धर भी कभी क्या,
जीत का श्रेय ले पाता?
कुरुक्षेत्र तो केवल, गुँजती
टकराती आवाज़ों से बनता है।
और विजय ध्वज उठाने वाला,
निश्चय ही नया कर्ता बनता है।
और फिर,
वही निमित्त,
जिसने कभी स्वयं मे,
नया कर्ता खोज लिया था,
फिर से,
मूक धनुर्धर बन,
नई आवाज़ मे,
पुरानी प्रेरणा पाता है।
पथिक! क्यों रणभेरी बजाता है?
पथिक! क्यों रणभेरी बजाता है?
acchi hai ji 🙂 mujhe title ‘besht’ laga 🙂
Nice and deep.
lekin ek baat main abhi bhi soch rahee hun ki, pathik to rahgeer hua na, jo matra anubhav le sakta hai. Is kavita ke context main pathik woh Raja lagta hai jo yudh karne ka nirnay leta hai, jo yudh ke jeetne ka shreya le sakta hai.
Shayad tumhara pathik, raja, sainik ek hi hain. woh raja jo khud ladta hai (shayad khud ke saath) aur jeet ka drishya khud hi dekh raha hai ek pathik ban 🙂
Rashmi
They can be hollow when they come, and users can put substance into it. The pathik is yours, not mine. 🙂
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