Had a discussion about Gandhi’s “Hind Swaraj“, and difference between western and Indian thought, and how good some old things were, and do we need a revival. And this came to mind:
उस सूखे ठूँठ पर नई टहनी पर नए पत्ते आए हैं।
यह उस पुराने, विशालकाय, छायावान पेड़ की याद नहीं दिलाते,
जो बुढे ज्ञानी बाबा के समान था, और अब ठूँठ बना खड़ा है।
यह टहनी तो आंगन में खेलती, छोटी, प्यारी बच्ची की याद दिलाती है।
पत्तों का आकार भले ही वैसा हो,
पर इस टहनी को फिर विशालकाय छायावान वृक्ष बनने मे समय लगेगा।
कितना ही गुस्सा, आंदोलन, तमाशा कर लो,
पर पेड दिनों मे बड़े नहीं होते।
ना ही ठूँठ अपनी पुरानी रौनक को लौटते हैं।
छाया फिर चाहिए,
तो वह छोटा-सा ठूँठ का तुकड़ा ढूंढो,
जहाँ अभी नमी बाकी है।
उसे सींचो,
और प्रार्थना करो कि वहाँ एक नई टहनी फूटे,
जो सालों बाद हि सही, पर छाया ज़रूर दे।
तब तक बुज़ुर्गों के सुनाए बूढ़े, विशालकाय, छायावान बरगद के किस्सों से ही काम चलाओ।
और तब तक,
कोई भी मिनटों मे ठंडे छायादार आराम का लोभ दे,
तो उस पर विश्वास न करो।
Quite lovely, in sentiment and composition. I’ve only recently started believing in the importance and harmony of patience and effort. Wonder if it has something to do with age?
Your message is wise and probably true, however advocating restraint, patience and hard work is never what fires the imagination of a public. Unfortunate.
Came here from your twitter page. A rare blog, a rare person. I have nothing but respect, Sir.