I posted a piece from this poem earlier. That was all I remembered from the poem then. And I didn’t even know the poet then. I posted it here earlier. Fortunately I found some of the old textbooks at home and found the entire poem in there. It’s written by Balakrishna Rao, and here’s the entire poem:
मनाना चाहता है आज ही?
– तो मान ले
त्योहार का दिन
आज ही होगा!
उमंगे यूँ अकारण ही नही उठती,
न अनदेखे इशारों पर
कभी यूँ नाचता है मन;
खुले-से लग रहे हैं द्वार मन्दिर के?
बढ़ा पग,
मूर्ती के शृंगार का दिन
आज ही होगा!
न जाने आज क्यों जी चाहता है –
स्वर मिलाकर
अनसुने स्वर में किसी के
कर उठे जयकार!
न जाने क्यों
बिना पाए हुए ही दान
याचक मन
विकल है
व्यक्त करने के लिए आभार!
कोई तो, कहीं तो
प्रेरणा का स्रोत होगा ही –
उमंगे यूँ अकारण ही नहीं उठती,
नदी में बाढ़ आई है,
कहीं पानी गिरा होगा।
अचानक शिथिल-बंधन हो रहा है आज
मोक्षासन्न बंदी मन –
किसी की हो,
कहीं कोई भगीरथ-साधना पुरी हुई होगी,
किसी भागीरथी के भुमि पर अवतार का दिन
आज ही होगा!
[…] known Hindi poet. But one of his poems have stuck to my head for a very long time – “Aaj hi hoga“. I have shared this with many friends and it has stuck in many of their heads After a long […]