On Cultural Revivals … and Gandhi!

Had a discussion about Gandhi’s “Hind Swaraj“, and difference between western and Indian thought, and how good some old things were, and do we need a revival. And this came to mind:

उस सूखे ठूँठ पर नई टहनी पर नए पत्ते आए हैं।
यह उस पुराने, विशालकाय, छायावान पेड़ की याद नहीं दिलाते,
जो बुढे ज्ञानी बाबा के समान था, और अब ठूँठ बना खड़ा है।
यह टहनी तो आंगन में खेलती, छोटी, प्यारी बच्ची की याद दिलाती है।
पत्तों का आकार भले ही वैसा हो,
पर इस टहनी को फिर विशालकाय छायावान वृक्ष बनने मे समय लगेगा।
कितना ही गुस्सा, आंदोलन, तमाशा कर लो,
पर पेड दिनों मे बड़े नहीं होते।
ना ही ठूँठ अपनी पुरानी रौनक को लौटते हैं।
छाया फिर चाहिए,
तो वह छोटा-सा ठूँठ का तुकड़ा ढूंढो,
जहाँ अभी नमी बाकी है।
उसे सींचो,
और प्रार्थना करो कि वहाँ एक नई टहनी फूटे,
जो सालों बाद हि सही, पर छाया ज़रूर दे।
तब तक बुज़ुर्गों के सुनाए बूढ़े, विशालकाय, छायावान बरगद के किस्सों से ही काम चलाओ।
और तब तक,
कोई भी मिनटों मे ठंडे छायादार आराम का लोभ दे,
तो उस पर विश्वास न करो।

Haseen Shaam Na De

Wrote another gazal in quick succession… seems like I’m getting back to form 🙂

तबाही की ख़बर अब सर-ए-आम न दे,
रोज़-ए-नाकाम को हसीं शाम न दे।

मैं जानता हूँ वजह तेरी बेरुख़ी की,
अपने फ़ैसलों को मजबूरी का नाम न दे।

दहशत के लम्हों बाद, निकला है सड़कों पे,
अपनी गरज़ को हौसले का ईनाम न दे।

सफ़र-ए-मुहब्बत मे बहुत मक़ाम बाकी हैं,
अपने कदमों को बेवजह आराम न दे।

नूर-ए-इलाही की अदनी किरन काफ़ी है,
अब ज़िन्दग़ी को तबाही का अंजाम न दे।

इस बरस बसंत मे अमराई ना खिली,
बुलबुल-ए-बन को तू ये पैग़ाम न दे।

मय-ए-ख़ुदगर्ज़ी मे जो धुत है हर पल,
या रब, किसी वतन को ये अवाम न दे।

Kavi

New poem, just written. And quite satisfying like the last one 🙂

गुरु बोले – “जा खोज के आ
कि फूल है क्या?”
इक फूल दिखा,
मै मुस्काया।
उसके सौरभ को,
प्राणों मे भर लाया।
मन सुख मे नत हो आया,
तब मैनें जाना – फूल है क्या।

जब लौटा, तो गुरु ने पूछा –
“बता शिष्य कि फूल है क्या?”

मन ने सुन्दर आकार लिया,
पर शब्द रुके मुख तक आकर।
क्या पीत-श्वेत-लोहित मरमर,
यह कह देंगे जो मुझे दिखा?
कैसे समझाऊँ सौरभ को
जिसने प्राणों मे रस घोला?

शब्द खेलते आँख मिचौली,
बुद्धी धूंडती शब्दों को।
कभी तीव्रता से जा पकडे,
पर पाए फ़िका उनको।
कभी ऊंघते शब्द स्वयं ही,
आ जाते सम्मुख मेरे।
पर उत्तर फिर भी दे न सका
आखें औ’ सिर नत मेरे।

गुरु मुस्काए।
मुझको देखा।
कुछ कहा नहीं,
और चले गए।

मैने माना कि विफल बुद्धी।
शब्दों के होते मुक्त प्राण।
बंधन मे उनको बांधोगे,
तो भागेंगे वे बचा प्राण।
मान बुद्धी को विफल अगर,
उस फूल मे मन को रम लोगे,
तो शब्द तितलियों से आकर,
खुद ही मन पर मंडराएँगे।
बिन लगाम के बुद्धी की,
तब गीत कण्ठ गाए मेरा।
जो जिह्वा से उस पल निकला,
वह सहज बनी मेरी कविता।

मैं बहुत खुशी से लहराया –
“कह दिया है मैने फूल है क्या।”
पर दो पल रुक कर सोचो तो,
क्या मैं हूँ कवि इस कविता का?

Arpan

I wrote poetry after a long time. And this time, unlike all other times, I am feeling very satisfied with it. I called it अर्पण, a dedication. Here’s the poem:
घन उपवन मे थे फूल चार।
कुछ संजो लिए, कुछ बिखर गए।
जो संजो लिए, वह तुझे चढे।
जो बिखर गए, वह तुझे मिले।

नक्षत्र प्रचुर विस्तृत नभ मे,
कुछ दिखे और कुछ छुपे रहे।
वे छुपे तुम्हारी झोली मे,
औ’ दिखे तुम्हारी रौनक से।

बहती नदिया मे जल अपार,
कुछ बहा दिया, कुछ भर लाया।
जो भरा, तुझ ही पर चढा दिया,
जो बहा दिया वह तुझे मिला।

वन पथ पर कटंक बहुत मिले,
कुछ चुभे और कुछ पडे रहे।
जो रक्त बहा वह तेरा था,
जो दर्द हुआ वह तुझे हुआ।

जीवन पथ पर सौ लोग मिले,
कुछ साथ रहे, कुछ चले गए।
तुझको देखा हर साथी मे,
और उनमे भी, जो चले गए।

जो तूने खुद को तृप्त किया,
आभार किसी का क्या मानूँ?
जो दर्द खुद ही तू भोग रहा,
क्या खेद करूँ, और क्या रोउँ?

Basant

Nowdays, I keep playing with Garage Band. And though I was always interested in Indian classical music, I never did anything musical myself. So I decided to understand a few raagas.This site:
http://www.swarganga.org/raagabase.php

was really helpful. So I took up a raag – Basant – and tried playing it. Then I added some percussion in the background, and got this

http://www.ghushe.com/m/my/Basant.m4a

Enjoy!! 😀

Ranbheri (the battle cry)

Poems are like beds. They come in all forms – from extremely pink, furry, mushy and soft to back-painingly rock hard. You can always add cushions to make them better. They can be used as decorative pieces in drawing rooms, without much utility though. And they seem unnecessarily clumsy when used as decorations. They have their own roles to play in love affairs (okay don’t look at me like that… they have nice and legitimate roles to play… you pervert). They can be hollow when they come, and the ‘user’ can put substance into them by his imagination. If you don’t want others to see a broken piece, you always have sheets to cover them.

And of course, you can sleep over them.

So here’s a poem which I wrote the day before, clad it in a big white sheet yesterday, and I slept over it the yesterday night. Take it:

पथिक! क्यों रणभेरी बजाता है?

बिखरे हुए इस राज्य को,
क्या जीत कर मिलना तुझे।
हारी हुई सेनाओं से,
क्या सोच भिड़ना है तुझे।

हराकर इन मृतों को,
क्या जीत तेरी हो सकेगी?
या तुझे भी जान निर्दय,
वह भी रुख कुछ मोड़ लेगी।

जबकि इन सब बैरियों को,
वह चुका है मार,
औ’ तुझे बतला रहा
बस निमित्त लाचार।

फिर भी पग क्यों लड़खड़ाते,
हाथ से गिरता धनुष क्यों?
ईश्वरेच्छा से बंधा,
हर एक युग मे यह मनुज क्यों?

कर बंधे हैं, चरण हारे,
दोष फिर भी स्वयं मे ही पाता है,
पथिक! क्यों रणभेरी बजाता है?

कर रहे इंकार शर अब,
चाप से ही छुटने को,
जबकी भौंरा भी विकल सब,
सौरभों को लूटने को।

क्या यह पहली बार है,
कि हो रहा है मन विकल?
कर रहा इंकार है अब,
प्रेरणा को भी निगल।

क्या देखा है तुमने पहले,
निमित्त को किसी,
किसी युग मे,
स्वयं को निमित्त मानने से करते इंकार।
या देखा है उसे,
गहरी सोच मे ड़ुबे
पहचानते टटोलते अपने ही ध्येय का आकार।

या फिर उलट कर,
जवाब देते, कर्ता को
अपने ही ।

क्या यह केवल,
इसी युग की सच्चाई है?
या फिर होता रहा है युगों से यही निरंतर।
या शायद,
प्रत्येक युद्ध के पहले,
मिट जाता है कर्ता और निमित्त का अंतर।

सारथी और धनुर्धर मानों,
जान पडते हों,
एक ही।

तीक्ष्ण दृष्टी है, सोच प्रबल,
फिर भी स्वयं मे कर्ता नहीं देख पाता है,
पथिक! क्यों रणभेरी बजाता है?

जब कर्ता की आवाज़,
हो जाती है पुरानी,
तो निमित्त खुद मे ही
खोज लेता है कर्ता की बानी।

गु्नगुनाते हैं सैकडो
अंतर मे छुपे साज़,
जब सुन पाता है वह
अपनी ही नई आवाज़।

पर वही आवाज़ें पुरानी और विकट,
प्रतिध्वनित हो लौट आती है,
और कानों के आकर निकट,
खोए विश्वास को समेट रणभेरी बजातीं हैं।

सच्चा युद्ध नहीं जीता
बाणों की पैनाहट से जाता,
धनुर्धर भी कभी क्या,
जीत का श्रेय ले पाता?

कुरुक्षेत्र तो केवल, गुँजती
टकराती आवाज़ों से बनता है।
और विजय ध्वज उठाने वाला,
निश्चय ही नया कर्ता बनता है।

और फिर,
वही निमित्त,
जिसने कभी स्वयं मे,
नया कर्ता खोज लिया था,
फिर से,
मूक धनुर्धर बन,
नई आवाज़ मे,
पुरानी प्रेरणा पाता है।
पथिक! क्यों रणभेरी बजाता है?
पथिक! क्यों रणभेरी बजाता है?

Midsummer Nights Dream

Yes. Its still summer in Delhi. And its night right now. And I just woke up in the middle of it, mostly because of a dream, and partly because I reminded myself that Germany has lost the semis to Italy.

Anyways, the night gave me an opportunity to finish an unfinished gazal of mine, so here it is:

शायर भी हुआ है कोई ये राह छोड़कर
इन मय से भरी आँख़ों की पनाह छोड़कर

बरसी न घटा इस कदर है सदियों में कभी
जिस माह तू मिली वो इक माह छोड़कर

सह लेगा दिल मेरा कई जामों का बिछड़ना
न कट पाए ज़िन्दगी तेरी निगाह छोड़कर

जब से सुनी वो नज़्म हुआ दिल पे वो असर
दिल कर रहा है आह, खुद ही आह छोड़कर

बुला रही है रौशनी सहर के उस तरफ़
जाऊँ तो किस कदर ये रात स्याह छोड़कर

तू चाहता है छोड़ दूँ ये ज़िद मेरी अभी
हर चाह मान लूँ तेरी ये चाह छोड़कर

कर के वो गया बात बड़ी सूझ से भरी
गया वो आशियाँ मगर तबाह छोड़कर

Dont ask me contexts. Many things have contributed to the gazal, the night, the summer, the world cup, and the mail from a friend that I just read. 🙂

The unsaid…

Another self-composed one, after a while. Actually wrote this one sometime back. But somehow found today an appropriate time to post. Also, have been a bit busy lately.

So here’s the gazal:

तुम नही तो और कोई चल रहा है संग,
कश्ती के लिए कब रुकी नदी की है तरंग।

न पूछो उसका नाम जो हुई फ़िज़ा मे गुम
मान लो कि दिल मे छुपी थी कोई उमंग।

कि भूल जाऊँ या संजोऊँ ख़्वाब वह हँसीन
बढ़ूँ तो किस तरफ़ कहो कि रास्ते हैं तंग।

ज़िन्दगी के ये सवाल देखकर के अब
दिल-ओ-दिमाग़ मे छिडी है जैसे कोई जंग।

रंग खिल उठे जो सुने हमने वो जवाब
खुशी के हैं कि गम के पता किसके है वो रंग।

वो कहते हैं न उनके लिए ग़म करे कोई
गम बिना भी है कोई क्या ज़िन्दगी का ढ़ंग।

Hamdard

This time a self-composed mukta-chhanda. No particular reason or thought line behind it, really free flowing words:

क्यों लौट कर आया है वो हमदर्द
वो पिघलता दर्द
वो आधे लिखे ख़त
वो पहचानी-सी आहट
वो कागज़ पर उतरने से इनकार करते लव्ज़
वो अपने हि मतलब के ज़ाहिर होने से ड़रते लव्ज़
वो अनछुई लकीरों को लाँघने की चाह
वो तिनके से छोटी पर फ़िर भी आसमानों को छुती आह
वो दूर परदेस से आती आवाज़ों को सुनने की ललक
वो हवाओं को महकाती रातरानी के फूलों की महक
वो कुछ कह जाने के ड़र से चुप चाप महफ़िल से दूर अंधेरे कोने ढूंढ़ता मैं
वो भेद ना खुल जाये इस ड़र से हलकी-सी झुकती आँखों को पूरी तरह मूंदता मैं
वो सिलसिलेवार हाथों से बिछड़ता दिल, और फ़िर सिलसिलेवार दिल को छुते हाथ
वो किसी के साथ न होते हुए भी महसूस होता किसी का साथ
वो रोशनी से मुलक़ात
आज बरसों के बाद
क्यों लौट कर आयी है और कर गयी है इस वक़्त को चटकीले रंगों मे गर्द
क्यों लौट कर आया है वो हमदर्द

Mein Ab

Still another self-composed gazal. I wrote this yesterday night. An unusual ‘radiif’ and an unusual mood, started to wander into philosophy but somehow got pulled back to love. That Happens, Also in real life.

So here it is:

क्यों भीगती न रुह मेरी है बारिशों में अब
मिट चुके से रंग सब है ख़्वाहिशों में अब

जो गुज़र गया वो मोड कुछ इस कदर मुडा
दिल लगे ना ज़िन्दगी की साज़िशों में अब

वो वक़्त था कि बुत ड़हे मेरे कलाम से
न शोर है न ज़ोर कुछ गुज़ारिशों में अब

इस कदर सुकून में मेरा वजूद है
हो पाख़ियों की फ़ौज जैसे गर्दिशों में अब

भा गया है इस कदर कोइ हसीँ मुझे
कि लुत्फ़ है अजीब सा ये बंदिशों में अब

हर एक बात उस हसीँ कि छेड़ती है यूँ
पुरज़ोर मन लगा है रोज़ रंजिशों में अब